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COLLECTION OF All 120 Shabd of Guru Jambheshwar Ji Maharaj.
तेज पुंज विष्णु स्वरूप गुरु जाम्भोजी महाराज के मुखारविन्द से उच्चरित सबद-सूत्र संग्रह
श्री गुरु जम्भेश्वर जी महाराज का संक्षिप्त परिचय
जन्म: वि. संवत् 1508 भाद्रपद बदी 8 कृष्ण जन्माष्टमी को अर्द्धरात्रि कृतिका नक्षत्र में (सन् 1451) ग्राम: पींपासर जिला नागौर (राज.)
पिताजी: ठाकुर श्री लोहटजी पंवार काकाजीःश्री पुल्होजी पंवार (इनको प्रथम बिश्नोई बनाया था।)
बुआः तांतूदेवी
दादाजीः श्री रावलसिंह सिरदार (रोलोजी) उमट पंवार ये महाराजा विक्रमादित्य के वंश की 42 वीं पीढ़ी में थे।
ननिहालः ग्राम छापर (वर्तमान ताल छापर) जिला चुरू (राज.)
माताजीः हंसा (केसर देवी)
नानाजीः श्री मोहकमसिंह भाटी (खिलेरी)
वि॰सं॰ 1540 में चेत्र सुदी नवमी को पिताजी लोहटजी का स्वर्गवास उसके पांच महीने बाद माताजी केसर देवी का स्वर्गवास। सात वर्ष तक मौन एवं सत्ताईस वर्ष गायें चराने के बाद 34 वर्ष की आयु में गृह त्याग कर समराथल धोरे पर गमन एवं सन्यास धारण। वि. सं. 1542 में कार्तिक बदी 8 से अमावस्या तक बिश्नोई धर्म स्थापना। 51 वर्ष तक देश-विदेशों में भ्रमण किया। राजा-महाराजा, अमीर -गरीब, साधु-गृहस्थों को विभिन्न चमत्कार दिखाए। उपदेश दिए एवं वि॰सं॰ 1593 मिंगसर बदी नवमी चिलतनवमी के दिन लालासर की साथरी पर निर्वाण को प्राप्त हुए।
लालासर की साथरी पंहुच कियो प्रयाण
इल माही अंधियारो हुयो ज्यूं भूमि बरत्यो भाण
जीवन परिचय :
जाम्भोजी का जन्म 1451 ई. में जोधपुर राज्य के अन्तर्गत नागौर परगने के पीपासर गाँव में हुआ था। जाति के वे पंवार राजपूत थे। इनके पिता का नाम लोहटजी था और उनकी माता हाँसा भाटी राजपूत कुल की थीं। अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र जाम्भोजी बचपन से ही यह मननशील थे जिससे वे कम बोलते थे। साधारणतः इस स्थिति को देखकर लोग इन्हें गूंगा थे। परन्तु कभी-कभी वे ऐसी बात कर बैठते थे कि लोग आश्चर्यान्वित हो जाते थे। संभवतः अचंभित करतूतों से लोग इन्हें जाम्भोजी कहने लगे हों। बताया जाता है कि 7 वर्ष की उम्र से ही जाम्भोजी ने गायें चराना आरम्भ कर दिया था जो लगभग अपनी 16 वर्ष की आयु तक करते रहे। इसी अवस्था में इन्हें सद्गुरु का साक्षात्कार हुआ।
जब इनके माता-पिता मृत्यु हो गयी तो वे घर छोड़कर चल दिये और सत्संग में तथा हरिचर्चा में अपना समय बताने लगे "वे केवल मननशील ही नहीं वरन् उस युग की साम्प्रदायिक संकीर्णता, कुप्रथाओं एवं कुरीतियों के प्रति जागरूक भी थे। वे चाहते थे कि अन्ध-विश्वास और नैतिक पतन के वातावरण से सामाजिक दशा को सुधारा जाय और आत्मबोध के द्वारा कल्याण के मार्ग को अपनाया जाय। उनकी शिक्षा-दीक्षा का व्यवस्थित न होना स्वाभाविक था, परन्तु गायें चराने के अवसर ने उन्हें एकान्तवास और मनन का समय दिया।
जाम्भोजी की जीवन लीला तालवा गाँव में 1526 ई. में समाप्त हुई जिसके स्मरण में विष्णोई भक्त फाल्गुन मास की त्रयोदशी को वहाँ एकत्रित होते हैं और मृत आत्मा को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। जाम्भोजी द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त सबदवाणी और उनका नैतिक जीवन मध्ययुगीन धर्म सुधारक प्रवृत्ति के बलवान अंग हैं।
Last updated on Apr 19, 2019
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SABADWANI JAMBHOJI MAHARAJ
1.0 by SAT KABIR
Apr 19, 2019